घर वापसी का मार्ग सुखद है, कल्याणकारी है-अरुण

देवल और मेघातिथि प्रणीत
घर वापसी का मार्ग सुखद है, कल्याणकारी है।


आओ मतान्तरितों अपने पुरखों के घर लौट चलो।


"स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः (3/35 श्रीमद्भगवद्गीता)। अर्थात् अपने धर्म का पालन करते हुए मर जाना भी श्रेष्ठकर्म है जबकि दूसरों का धर्म अपनाना नरक जाने जैसा भयावह है। यह हिन्दू समाज की सनातन संकल्पना है।


    भारत की धरती पर उपजे सभी मत मतांतर प्रकारांतर से यही मानते हैं। किन्तु विदेशों में उपजे सेमेटिक रिलिजन्स दूसरों को अपने धर्म में लाने को ही उनका मुख्य धर्म-कर्म मानते हैं और दिनरात मतान्तरण करने के हेतु से अपने धन-ताकत-ऊर्जा-समय-बुद्धि-कौशल-राज्यसत्ता की शक्ति सब व्यय करते हैं।


    उनका अभिमत है कि सम्पूर्ण जगत् उनके गॉड-अल्लाह को मान ले और मर जाए, तब कयामत/डे ऑफ जजमेंट का दिन आएगा और उनका अल्लाह/गॉड सबके जन्नत/हेवेन और जहन्नुम/हेल में जाने का फैसला करेगा। उनका गॉड/अल्लाह जब निर्णय करेगा तब यह सोचकर निर्णय नहीं करेगा कि किसने अपने जीवन में कैसा कर्म किया है, वरण यह सोचकर निर्णय करेगा कि किसने सबको गॉड/अल्लाह की ताकत के नीचे लाने में कितना छल-बल का उपयोग किया और सफलता पाया है। उसकी यह मतान्तरण की सफलता-विफलता ही उनके जन्नत/हेवेन और जहन्नुम/हेल में जाने के निर्णय का आधार बनेगा।


    यह संकल्पना न्यायपरक नहीं साम्राज्यपरक है। जगत् पर कब्जे की नीयत से चलाए हुए कल्पित संकल्पना को धर्म की संज्ञा नहीं दिया जा सकता है। यह तो साम्राज्यवादी विस्तार और राजनीतिक सत्ता प्राप्ती का मार्ग मात्र है जिसमें सत्य और न्याय का, अचार और विचार का कोई सामंजस्य नहीं है।


    जिस कर्म के करने से निःश्रेयस की सिद्धि न हो वह धर्म कैसा? जहाँ परमार्थ का चिन्तन हो, अपने हित का त्याग कर औरों के हित की प्रवृति हो, समाज-देश-जगत्-प्रकृति और त्यागपरक संस्कृति के कल्याण का हेतु हो वही प्रवृत कर्म धर्म कहलाता है। और ऐसे उच्चमनस्क धर्म में जीवन व्यतीत करते हुए कष्ट धारण करके भी मर जाने में हानि नहीं।


     धर्म का पालन करते हुए विधर्मियों से संघर्ष में मारे जाने से भी हानि नहीं। दूसरों के विस्तारवादी, सत्य-न्याय-आचार-विचार रहित साम्राज्यवादी क्रियाकर्म में शामिल होकर धर्म की उच्चतम मर्यादा का परित्याग करना सच में भयावह है। यह नरक का मार्ग प्रशस्त करने का उपक्रम है।


सनातन मान्यता है कि आपके स्वयं के कर्मों के आधार पर ही आपको जीवन में सुख-दुख, स्वर्ग-नरक, सद्गति-दुर्गति, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष, सुविधा या अभाव, सम्पन्नता-विपन्नता, रोग-आरोग्य, अल्पायुष्य-दीर्घायुष्य, संतानहीनता-संतानसुख, रूप-गुण-वाणी-व्यवहार-ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। इसी को शास्त्रों ने कर्मफल सिद्धांत कहा है। पूर्वजन्म के कर्मफल (प्रारब्ध) के आधार पर ही आगामी जन्म की योनि और वर्णाश्रम की प्राप्ति होती है। इस मान्यता को पुनर्जन्म का सिद्धांत कहते हैं।


    सनातन धर्म की मान्यता है कि कल्प के अनन्तर में सभी सृजित सजीव-निर्जीव-निर्वात-संवात एक ब्रह्म में लय हो जाते हैं। सृष्टि बीज रूप में सिमट जाती है। इसी को प्रलय की संज्ञा दी जाती है। कल्प का संध्याकाल व्यतीत हो जाने पर बीज रूप ब्रह्म अर्थात् हिरण्यपिंड अनेक रूपों में विस्तारित होता है। सभी लोकों, भुवनों का निर्माण होता है। सभी भौतिक और चैतन्य पदार्थों का पुनर्सृजन होता है।


    सृजन जड़-चेतन-अवचेतन पदार्थों का रूपांतरण मात्र है। यह बीज से सृजन और सृजन के लय से बीज की निर्मिति की पूर्ण प्रक्रिया सुनियोजित है, योजनाबद्ध है, लयबद्ध है। यह बिग बैंग नहीं है। स्पोंटेनियश नहीं है। अचानक होने वाली अनियंत्रित घटना नहीं है। 


सनातन धर्म की इस प्राकृतिक, स्वाभाविक, साइंटिफिक (साइंस और विज्ञान समानार्थी नहीं), वैज्ञानिक, परावैज्ञानिक, आध्यात्मिक, धार्मिक मान्यता को ही धर्म कहा गया है। यहाँ आपके कर्मों से आप ही निर्धारित करते हो कि आपको स्वर्ग जाना है या नरक में। आपको विष्णुपद प्राप्त करना है, शिवपद प्राप्त करना है !


   सर्वोच्च ब्रह्मपद प्राप्त करके ब्राह्मण हो जाना है, ब्रह्ममय हो जाना है। यहाँ कब्र में पड़े रहकर किसी न्यायाधीश की राह नहीं देखना है। यहाँ तो कर्ता भी आप हो, नियंता भी आप हो। आप ही जीव हो, आप ही ब्रह्म हो। आप ही प्रकृति हो, आप ही सृष्टि हो। आप कर्म आज करो और फल भी आज ही प्राप्त करो। अधिक उत्तम या अधम कर्म किया तो यह कर्मफल आगे के लिए भी संचित हो जाता है, जो आपके आगामी समय के सुख-दुख का कारक बनता है, आगामी जन्म के निर्धारण में सहायक है। जन्मजन्मांतरों में भी, कल्पकलान्तरों में भी आपका कृत कर्म क्षय नहीं होता।


    जब आप मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं तभी आपको कर्मफल चक्र से छुटकारा मिलता है। इतना उत्तम धर्म सदैव पालन करने योग्य है। यहाँ कोई बिचौलिया आपसे भेदभाव नहीं करता।  यहाँ ब्रह्म आपका निर्णय नहीं करता वरण आपको भी ब्रह्म बन जाने का अवसर देता है। इसीलिए अपने घर में बने रहना और यदि भूलचूक से दूसरों के घर चले गए तो अपने घर में वापस आ जाना ही सर्वोत्तम है। देवल और मेघातिथि द्वारा बताया गया घर वापसी का मार्ग आपके लिए सुखद है, कल्याणकारी है।