पांच महीने व्हाट्सएप पर वीडियो न देख पाने पर तो बवाल है, पर तीस साल से कश्मीरी पंडित अपना घर नहीं देख पाए.!

कश्मीरी पंडित: पलायन की दास्तां, हमारे समाज को रिसते रिसते 30 बरस रिस गए


जिस हिंसा और प्रताड़ना के साथ घाटी से पलायन हुआ, वह त्रासदी सालती है। क्योंकि कश्मीरी पंडितों को अबतक न्याय नहीं मिला।


पहले हम लोग रिस रहे थे। कश्मीर में, छह शताब्दी पहले तक केवल हमीं लोग थे-हिंदू और बौद्ध। हम यहां के मूल निवासियों की संतान थे। आज घाटी में हमें ढूंढ़ना पड़ता है। हम सब लोग रिस-रिस कर चूक ही जाते। लेकिन, इतना धैर्य कहां होता है जेहाद में। तीस बरस पहले सभी को एक साथ उलीच डाला। लगभग चार लाख लोग बहा दिए गए। तब हम घाटी के कुल जमा का 6-7 प्रतिशत भी नहीं थे। रिस-रिसकर छोटा सा समुदाय रह गया था हमारा। निर्मम धर्मांतरण के चलते हमें तीन विकल्प दिए जाते थे, रॅलिव-गॅलिव-च़ॅलिव। मतलब कि मुसलमान हो जाओ, मर जाओ या भाग जाओ।


1990 से पहले भी छह बार हम हिन्दू-बौद्ध एक-मुश्त उलीच कर बहा दिए गए थे। सुल्तानों के समय, मुग़लों के समय और पठानों के समय। लेकिन, तब हम पर आततायी शासन था। परवश थे हम। हमारे पास सेना नहीं थी। मघ्य युगीन बर्बरता का बोलबाला था। इस बार तो ऐसा नहीं था। 1990 में तो देश स्वतंत्र था। दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सेना थी हमारे पास। एक चुनी हुई संसद थी। एक संविधान था। न्यायालय थे। पुलिस थी। एक जीता-जागता प्रेस था। दुनिया में मानवाधिकारों का नगाड़ा बजता था। इन सबके कारण हमने भी एक भ्रम पाल लिया था कि जब तक सचिवालय पर तिरंगा लहरा रहा है और छावनी में हमारी सेना है, हम पर कोई टेढ़ी नज़र नही डाल सकता। उस भ्रम के बिखरने की टीस के अब तीस साल हुए हैं।


किसी को भी दोषी नहीं सिद्ध किया गया। जब मुकदमे ही नहीं चले, तो सजा किसे मिलती? चलते हुए जीवन उजड़ गए नौकरियां, व्यापार, पढ़ाई-लिखाई, घर-बार, खेत-बगीचे सब लुट गए। किसी को धेले भर भी नुकसान की भरपाई नहीं मिली। मिले तो बस तंबू। सांप-बिच्छुओं के बीच पथरीली ढलानों पर, बस्तियों से दूर, तपते बीहड़ो में। पानी तक को तरस गए झीलों और झरनों के बीच रहने वाले। गोलियों से भून दिये जाने वालों की सूची तो बनती है कम से कम। जो तिल-तिल कर मर गए और तड़प-तड़प कर पागल हो गए उनका कोई हिसाब नहीं। इसकी टीस भी है।


अनुच्छेद 370 की बेड़िया टूटते देखते हैं, तो टीस कुछ घटती है। जेहादी नेतृत्व को सलाखों के पीछे पाते हैं, तो लगता है कि देश की समझ पर पड़े परदे उठ रहे हैं। लेकिन, जब देखता हूं कि पांच महीने व्हाट्सएप पर वीडियो न देख पाने पर तो बवाल है, पर तीस साल से अपना घर नहीं देख पाए लाखों लोगों की त्रासदी पर देश में सन्नाटा है तो समझ नहीं आता।


हम चुनावों की अंधी इस राजनीति में इतने वोट नहीं रखते कि किसी को हरा या जिता सकें। इसी का दंड भुगत रहे थे। हमने बंदूक भी नहीं उठाई थी। शायद इसका भी दंड भुगता।