लिख नहीं सकता
लेखनी नहीं चलती
प्रकृति, सौन्दर्य, प्रेम, माधुर्य
विरह , विक्षोभ, वैराग्य
कुछ भी नहीं।
महज़ आँसू और गुहार
मानवता की हार
वसंत का हर श्वास
एक क्रूर अट्ठास
कुछ भी
लिख नहीं पाता।
लिखना ही नहीं चाहता
वे गोल गोल चाँद सी रोटियाँ
रेल पटरियों पर फैली
चीथड़ों-लोथड़ों के बीच।
क्षुधा पूर्ति की निराशा में
आपने गाँवों की बाट खोजती
चलते चलते सड़कों पर
भूख और प्यास से दम तोड़ती
गाड़ी में बैल बनी
अप्रवासी मज़दूरों की त्रासदी भरी जिंदगियाँ।
(खुद लिख नहीं पाता)
गोलोक बिहारी राय
राष्ट्रीय महामंत्री
राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण मंच