नेहरू और सावरकर ( अलग नजरिया)
 

 

13 अप्रैल को अमृतसर के जलियांवाला बाग में कई संख्या में लोगों इक्ट्ठा हुए थे.

डायर करीब 4 बजे अपने दफ्तर से करीब 150 सिपाहियों के साथ आया और लोगों को बिना कोई चेतावनी दिए अपने सिपाहियों को गोलियां चलाने के आदेश दे दिए और कुछ समय में ही इस बाग की जमीन का रंग लाल हो गया था.

 

इस घटना की जाँच के लिए 14 अक्टूबर 1919 को हन्टर कमीशन बिठाया गया। इसमें चार ब्रिटिश और तीन हिंदुस्तानी- पंडित जगतनारायण मुल्ला, सर चिमनलाल हरीलाल सेतलवाड़, सरदार साहिबज़ादा सुल्तान अहमद खान थे। जलियांवाला के बाद जनरल डायर की क्रूरता में कमी नहीं थी। अमृतसर में सैनिक शासन स्थापित कर दिया गया। बाग के पास की सड़क पर भारतीयों के लिए रेंग के जाने का नियम लगाया गया। 8 बजे के बाद कर्फ्यू लगा दिया जाता था। जनरल डायर ने स्वीकार किया कि यदि मशीन गन अंदर ले जाने की संभावना होती तो वह अवश्य उसे उपयोग करता।

 

जनरल डायर की मृत्यु सेरिब्रल हेमरेज से 1927 में हुई। तत्कालीन पंजाब के गवर्नर माइकल ओड्वायर का वध शहीद उधम सिंह ने 13 मार्च 1940 में की। ऐसी दुर्दांत घटना के बाद तत्कालीन पंजाब के गवर्नर माइकल ओड्वायर को स्वर्ण मंदिर में सम्मानित किया गया था। मृत्यु के बाद उसके परिवार को पंजाब से ही कुंज बिहारी थापर, उम्र हयात खान, चौधरी गज्जन सिंह और राय बहादुर लाल चंद की ओर से 1,75,000 रुपये दिए गए।

 

यहाँ कुछ नाम बहुत महत्वपूर्ण हैं। यदि पाठक इन पर ध्यान नहीं देंगे तो मेरा लिखना बेकार हो जाएगा। समय मिलने पर इनमे से प्रत्येक नाम की कहानी लिखुंगा।

 

1- पंडित जगतनारायण मुल्ला - पंडित जगत नारायण , पंडित मोती लाल नेहरू के भाई नन्द लाल नेहरू के समधी थे। नन्दलाल नेहरू के पुत्र किशन लाल नेहरू का विवाह जगत नारायण की पुत्री स्वराजवती मुल्ला से हुआ था।1916 ई. की लखनऊ कांग्रेस की स्वागत-समिति के अध्यक्ष वही थे। लगभग 15 वर्षों तक लखनऊ नगरपालिका के अध्यक्ष रहे। मांटेग्यू चेम्सफ़ोर्ड सुधारों के बाद उत्तर प्रदेश कौंसिल के सदस्य निर्वाचित हुए और प्रदेश के स्वायत्त शासन विभाग के मंत्री बने। जगत नारायण मुल्ला 3 वर्ष तक वे लखनऊ विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे। प्रसिद्ध काकोरी क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल व अन्य 4 को मृत्युदण्ड दिलवाने मे इनकी बहुत अधिक महत्वपूर्ण भूमिका थी। ये सरकारी वकील थे। इसके विपरीत आर्यसमाजी चन्द्र्भानु गुप्ता जी क्रांतिकारियों के वकील थे जिन्हे नेहरू ने छल से मुख्यमंत्री पद से हटा दिया था।

इसी के पुत्र बाद मे हाईकोर्ट के जज रहे और राज्यसभा सदस्य भी बनाए गए। 

 

2- सर चिमनलाल हरीलाल सेतलवाड़- तीस्ता सीतलवाड़ इनकी पोती है इनके पुत्र और तीस्ता के पिता मोतीलाल सीतलवाड़ नेहरू के बेहद विश्वसनीय 1950 से 1963 तक भारत के अटॉर्नी जनरल थे व भारत के पहले लॉं कमीशन के चेयरमैन थे। तीस्ता सीतलवाड़ को तो आप सब जानते ही हैं।

 

3- कुंज बिहारी थापर -- कुंज बिहारी थापर के तीन बेटे थे दया राम, प्रेम नाथ तथा प्राण नाथ। इसके अलावा उन्हें पांच बेटियां भी थीं। पत्रकार करण थापर के पिता जनरल प्राण नाथ थापर एकमात्र ऐसे सेना प्रमुख थे जिन्होंने युद्ध हारा था। 1962 में चीन से लड़ाई हारने के कारण ही उन्हें 19 नवंबर 1962 को अपमानित होकर जबरन इस्तीफा देना पड़ा था। 1936 में प्राण नाथ थापर ने गौतम सहगल की बहन बिमला बशिराम सहगल से शादी की थी। वहीं 1944 में गौतम सहगल की नयनतारा सहगल से शादी हुई। नयनतारा सहगल जवाहरलाल नेहरू की बहन विजया लक्ष्मी की तीन बेटियों में से दूसरी बेटी थी। प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार रोमिला थापर इन्ही कुंज बिहारी थापर के बेटे दायराम थापर की बेटी हैं और रिश्ते मे कर्ण थापर की बुआ हैं।

 

4- सर शोभा सिंह -- इनके परिवार से थापर परिवार की रिश्तेदारी थी। शोभा सिंह ही 8 अप्रैल 1929 को संसद में हुए बम विस्फोट के मुख्य गवाह थे। शोभा सिंह ने ही भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की पहचान की थी और गवाही दी थी। । शोभा सिंह की वफादारी ब्रिटिश सरकार के प्रति वैसे ही थी जैसे कुंज बिहारी थापर की थी। इसी वजह से दोनों वंशजों को अकूत संपत्ति के साथ प्रतिष्ठा भी मिली। भारत के तत्कालिन वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने जैसे ही भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की ब्रिटिश सरकार ने सुजान सिंह के साथ उन्हें भी लुटियंस दिल्ली बनाने का ठेका देकर पुरस्कृत किया। साउथ ब्लॉक, और वार मेमोरियल आर्क (अब इंडिया गेट) के लिए यही अशिक्षित सोभा सिंह एकमात्र बिल्डर थे। सोभा सिंह दिल्ली में जितनी जमीन खरीद सकते थे उतनी ख़रीदते गए ।2 रुपये प्रति गज़ के हिसाब से उन्होंने कई व्यापक साइटें खरीदीं और वो भी फ़्री होल्ड के रूप में.उस समय उन्हें आधी दिल्ली दा मलिक (दिल्ली के आधे हिस्से का मालिक) कहा जाता था। उन्हें 1944 के बर्थडे ऑनर्स में सर की उपाधि से विभूषित किया गया था। शोभा सिंह के छोटे भाई सरदार उज्जल सिंह सांसद बन गए जो बाद में पंजाब और तमिलनाडु के राज्यपाल भी बने।सर शोभा सिंह के चार बेटे थे भगवंत, खुशवंत, गुरबक्श और दलजीत और एक बेटी थी मोहिंदर कौर। खुशवंत सिंह एक नामी पत्रकार और लेखक होने के साथ ही एक राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने 1980 से 86 तक राज्य सभा के सदस्य व इंदिरा गांधी के आपातकाल के समर्थक खुले रूप से कांग्रेस के समर्थक थे। इसके एवज में उन्हें 1974 में पद्म-भूषण पुरस्कार से और 2007 में उनको दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से सम्मानित भी किया गया।

 

सावरकर 

अपने जीवन भर राजनीतिक रूप से वो चाहे कितने भी हाशिए पर रहे हों, लेकिन आज वो राजनीति के केंद्र में हैं। कॉन्ग्रेस का कोई ना कोई नेता आए दिन उन्हें अपशब्द कह रहा होता है। खुद को प्रगतिशील साबित करने के लिए जरूरी है कि आप सावरकर का अपमान करते नज़र आएँ। कॉन्ग्रेस को लगता है कि देश को आज़ाद कॉन्ग्रेस ने कराया है, इसलिए देश पर राज करने का स्वाभाविक हक कॉन्ग्रेस का है। उस पर यह भी नेहरू जी ने कॉन्ग्रेस की आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व किया है, इसलिए सिर्फ उनका परिवार ही वो पवित्र परिवार है, जिसका सदस्य देश का प्रधानमंत्री बन सकता है।

 

कॉन्ग्रेस और भारत का प्रगतिशील तबका जैसा सूक्ष्म आकलन सावरकर के जीवन का करता है या जैसा मापदंड सावरकर के लिए अपनाता है, वैसा मापदंड वो किसी भी दूसरे नेता के लिए नहीं अपनाता। जैसे कि 1923 में नाभा रियासत में गैर कानूनी ढंग से प्रवेश करने पर जवाहरलाल नहेरू को 2 साल की सजा सुनाई गई थी।

 

लेकिन सिर्फ 2 हफ्ते की सजा के बाद ही ये स्थिति हो गई कि जवाहरलाल नेहरू ने अब कभी नाभा में प्रवेश ना करने का बॉन्ड भर कर अपनी सज़ा माफ कराई, साथ ही उनके पिता उन्हें छुड़ाने के लिए वायसराय तक सिफारिश लेकर पहुँच गए। लेकिन इसके बाद भी नहेरू भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी हैं, लेकिन 50 साल की सजा पाए सेल्युलर जेल में 10 साल काटने वाले सावरकर अगर दया याचिका लिखते हैं तो वो कायर कहे जाते हैं। यानी, नेहरू बॉन्ड भरकर जेल से रिहाई ले सकते हैं, लेकिन सावरकर दया याचिका नहीं लिख सकते।

ये आपको हर जगह दिखेगा। सावरकर ने अपने जीवन के 27 साल जेल या नज़रबंदी में काटे। साल 1910 से लेकर 1924 तक वो काला पानी समेत विभिन्न जेलों में रहे तो वहीं 1924 से लेकर 1937 तक वो रत्नागिरी में नज़रबंद थे। जिस समय देश को आजाद कराने वाले बड़े-बड़े नेता, जिनसे अंग्रेज थर-थर काँपते थे, गोलमेज़ सम्मेलन में हिस्सा लेने लंदन जाया करते थे, उस समय सावरकर को रत्नागिरी से एक कदम बाहर रखने की इज़ाजत नहीं थी। लेकिन इसके बाद भी सावरकर अंग्रेजों के साथी थे और गोलमेज़ सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले अंग्रेजों से देश को आज़ाद करा रहे थे।

भगत सिंह को वामपंथी/नास्तिक और सावरकर को हिन्दुत्व का झंडा पकड़ाकर आमने-सामने खड़ा कर दिया जाता है। बड़े-बड़े संपादक और स्तम्भकार खुले आम झूठ बोलते नज़र आते हैं कि भगत सिंह की फाँसी पर सावरकर ने दो शब्द नहीं लिखे, जबकि सच ये है कि रत्नागिरी में नज़रबंद रहते हुए भी सावरकर ने भगत सिंह और राजगुरू के लिए कविता लिखी, जो उन दिनों महाऱाष्ट्र में होने वाली प्रभात फेरियों में गाई जाती थी।

 

जिसकी शुरूआती पंक्ति है –

 

हा भगतसिंग, हाय हा

(Woe is me, oh Bhagat Singh, oh)

जाशि आजि, फांशी आम्हांस्तवचि वीरा, हाय हा!

(For us today to the gallows you go)

राजगुरू तूं, हाय हा!

(Woe is me, oh Rajguru, oh!)

राष्ट्र समरी, वीर कुमरा पडसि झुंजत, हाय हा!

(O Brave One, battling in the national war you go!)

 

एक और झूठ जो सावरकर के नाम से परोसा जाता है वो ये है कि सब से पहले देश के विभाजन की बात सावरकर ने 1937 में की थी। जबकि, सच ये है कि 1933 के तीसरे गोलमेज़ सम्मेलन में ही चौधरी रहमत अली ‘Pakistan Declaration’ के पर्चे बाँट रहे थे।

 

1937 से पहले दर्जन बार कई नेता इस तरह की बातें कर चुके थे लेकिन बड़ी होशियारी से देश के विभाजन की त्रासदी के जवाबदेही को कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग के खाते से निकाल कर सावरकर के हिस्से में डालने की कोशिश की जाती रही हैं।

 

रत्नागिरी में नज़रबंदी के दौरान सावरकर को 60 रुपए महीने पेंशन के तौर पर अंग्रेज सरकार देती थी। उनके शहर से बाहर जाने या किसी भी प्रकार के नौकरी करने पर रोक थी। अंग्रेजों से पेंशन पाने पर सावरकर आलोचना के पात्र हैं लेकिन जब असहयोग आंदोलन के बाद पाँच साल की सजा पाए गाँधी जी को सिर्फ दो साल मे ही छोड़ दिया गया क्योंकि उन्हें अपेन्डिक्स का ऑपरेशन कराना था तो ऐसा करना ठीक है।