जन्मदिवस विशेष:पत्रकारिता के शिखर पुरुष  माणिकचन्द वाजपेयी
7 अक्तूबर जन्म_दिवस"

पत्रकारिता के शलाका पुरुष  माणिकचन्द वाजपेयी

 

सात अक्तूबर, 1919 को बटेश्वर (आगरा,उ.प्र.) में श्रीदत्त वाजपेयी के घर जन्मे माणिकचन्द वाजपेयी को अधिकांश लोग मामा जी के नाम से जानते हैं। यों तो मूलतः वह पत्रकार थे; पर उनमें एक साथ अनेक प्रतिभाओं के दर्शन होते थे। इसे उन्होंने समय-समय पर सिद्ध भी करके दिखलाया।

 

मामाजी की कर्मभूमि प्रारम्भ से मध्य प्रदेश ही रही। वे पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के चाचा थे; पर उन्होंने कभी इस बात का प्रचार नहीं किया। तेजस्वी बुद्धि के धनी मामाजी ने मिडिल की परीक्षा में ग्वालियर बोर्ड में और इण्टर में अजमेर बोर्ड में प्रथम स्थान लेकर स्वर्ण पदक पाया था। बी.ए. और कानून की परीक्षाएँ भी उन्होंने इसी प्रकार उत्तीर्ण कीं।

 

विद्यार्थी जीवन में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये और #1944_में_प्रचारक_बन_गये। नौ वर्ष तक उन्होंने भिण्ड के बीहड़ों में राष्ट्रभक्ति की अलख जगायी। यह क्षेत्र सदा से ही बागियों और दस्युओं से प्रभावित रहा है; पर मामाजी ने इसकी चिन्ता नहीं की। 1953 में उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। इसके बाद भी संगठन उनके जीवन में प्राथमिकता पर रहा।

 

मामाजी को जब, जो काम सौंपा गया, उन्होंने उसे स्वीकार किया।1951 से 1954 तक वे #जनसंघ के #संगठन_मन्त्री रहे। 1952 के चुनाव के समय उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी राजमाता विजयाराजे सिन्धिया के विरुद्ध चुनाव लड़ने को कहा गया। वे जानते थे कि दीपक और तूफान के इस संघर्ष में पराजय निश्चित है, फिर भी दल का निर्णय मानकर उन्होंने पूरी शक्ति से चुनाव लड़ा। इसके बाद वे अध्यापक बन गये। 1964 तक वे लहरौली, भिण्ड में अध्यापक और फिर 1966 तक विद्यालोक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्रधानाचार्य रहे।

 

1966 में इन्दौर से #स्वदेश नामक दैनिक समाचार पत्र प्रारम्भ किया गया। वे तभी से उससे जुड़ गये। 1968 से 1985 तक वे स्वदेश के प्रधान सम्पादक रहे। राष्ट्रवादी स्वर के कारण स्वदेश को अनेक संकटों से जूझना पड़ा, फिर भी उसके अनेक संस्करण निकले और उसने मध्य प्रदेश में प्रमुख समाचार पत्र के रूप में स्थान बनाया। इसका श्रेय मामाजी की प्रखर लेखनी को ही है।

 

1975 में #आपातकाल लगने पर मामाजी को जेल में ठूँस दिया गया। वे 20 महीने तक इन्दौर जेल में बन्द रहे पर इस बीच भी उनकी लेखनी चलती रही। जेल में रहते हुए ही उनकी पत्नी का देहान्त हो गया।1985 में उन्होंने फिर से वानप्रस्थी प्रचारक जीवन स्वीकार कर लिया। इसके बाद उन्हें संघ, स्वदेशी जागरण मंच, इतिहास लेखन आदि अनेक काम दिये गये। हर काम को उन्होंने पूरी निष्ठा एवं समर्पण से किया।

 

मामाजी ने कई पुस्तकें लिखीं। केरल में मार्क्स नहीं महेश, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने संविधान के आइने में, समय की शिला पर, पहली अग्नि परीक्षा, आपातकालीन संघर्ष गाथा, भारतीय नारी विवेकानन्द की दृष्टि में, कश्मीर का कड़वा सच, पोप का कसता शिकंजा, ज्योति जला निज प्राण की.. आदि पुस्तकों को लाखों पाठकों ने पढ़ा।

 

सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति मामा जी ने किसी सम्पत्ति का निर्माण नहीं किया। 27 दिसम्बर, 2005 को उन्होंने ग्वालियर संघ कार्यालय पर ही अन्तिम साँस ली। अटल जी ने श्रद्धांजलि देते हुए उन्हें पत्रकारिता का शलाका पुरुष ठीक ही कहा है।